श्री रमणाश्रमम

अपने बीस की आयु में वह एक युवा व्यक्ति थे तो भी श्री रमण महर्षि एक पवित्र, शान्त एवं तेजस्वी ऋषि थे | वह मद्रास प्रान्त के तिरुवण्णामलै कस्बे में स्थित पवित्र अरुणाचल की एक गुफा में रहे | वह एकान्त में रहे तथा यात्रियों से मौन द्वारा संबाद करते थे जबकि शिष्यों के बीच सदा घिरे रहे | उन्हे महान ऋषि महर्षि के रूप में जाना गया । भक्त उन्हें तृतीय पुरुष भगवान के रूप में संबोधित करते थे |

महर्षि अपने अनुयायियों के साथ छोटी गुफा में कुछ वर्षों के निवास के उपरान्त, पर्वत के स्कन्दाश्रम में रहने चले गये| यह भी एक गुफा थी किन्तु पहले से बड़ी तथा अधिक लोगों के निवास के लिए बनायी गयी थी | उनकी माँ, संसार का परित्याग करते हुए उनके साथ संयुक्त हो गयीं | उन्होंने छोटे समूह के लिए भोजन पकाना आरंभ किया जबकि उसके पूर्व शिष्यों के भिक्षाटन से प्राप्त भोजन पर गुजारा होता था |

माँ का १९२२ में देहावसान हो गया | पुत्र के अनुग्रह से उन्हें मृत्यु के समय मुक्ति मिली| परम्परा के अनुसार मुक्त व्यक्ति का शरीर जलाया नहीं दफनाया जाता है| पावन पर्वत पर दफनाना वर्जित है इसलिए उन्हें पर्वत के तल पर दक्षिण कोण पर दफनाया गया|

आधे धंटे का रास्ता तय करते हुए महर्षि, नित्य-स्कन्दाश्रम से माँ की समाधि पर जाते थे| एक दिन वह वहीं रुक गये| यह वह स्थान है जहाँ रमणाश्रमम् की नीव पड़ी|

उस समय श्री रमण महर्षि की आयु चालीस की थी तथा उन्होंने आत्मज्ञानी ऋषि के रूप में २६ वर्ष व्यतीत किये किन्तु तो भी वे दक्षिण भारत के बाहर अधिक विख्यात नहीं थे | उन्होंने प्रचार की उपेक्षा की तथा लोगों को आकर्षित करने हेतु चमत्कार आदि का प्रयोग नहीं किया| आश्रम का कोई कार्यालय नहीं था | जन-संचार एवं यात्रियों के लिए आवास की भी व्यवस्था नहीं थी| आश्रम का विकास तुरन्त नहीं हुआ | आरम्भ में वाँस के उपर नारियल पत्तों से बनायी गई झोपड़ी थी| महर्षि ने स्वयं को अकेले एकान्त में रखा तथा पूर्ण सादगी से रहते थे| वह किसी को आने या किसी को जाने के लिए नहीं कहते थे | यदि कोई आना चाहता, तो आ सकता था । यदि कोई आकर रहना चाहता था तो वह अपने स्वयं की व्यवस्था कर वहाँ रह सकता था | आश्रम व्यवस्था का उससे कोई संबंध नहीं था | यदि कोई नियम बनाये गये तो उसका पालन वह स्वयं करते थे किन्तु उन्होंने स्वयं कभी नियम नहीं बनाये| उनका कार्य पूर्णतया अध्यात्मिक था| वह चुपचाप अपने चारो ओर भक्तों के विकसित होते परिवार को देखते एवं अनके उपर अनुग्रह करते थे| प्रत्यक्ष रूप से वह अकेले थे किन्तु उनका प्रेम सबके लिए प्रवाहित था | हर किसी ने उनकी सूक्ष्म शक्ति एवं मार्गदर्शन के अनुग्रह को अनुभव किया|

यह, उनके छोटे भाई श्री निरन्जनान्द स्वामी थे जिसने  भवनों  के निर्माण एवं आश्रम के विकास के कोर्य को सँभाला| वह उसके सर्वाधिकारी या मैनेजर बने| महर्षि जैसे ही विरव्यात हुए, दान का प्रवाह आता गया तथा अनेक ईमारतें खड़ी हो गयीं | विशेषकर सर्वाधिकारी के हृदय में माँ की समाधि पर मंदिर तथा उससे जुड़ा एक बड़ा नवीन ध्यान कक्ष की इच्छा थी जो पूरी हो गई |

सबसे अधिक ध्यान का केन्द्र, ध्यान कक्ष था जहाँ भक्त महर्षि के साथ बैठते थे | वहाँ एक कोच है जहाँ वह दिन मे बैठते तथा रात्रि को विश्राम करते थे | फर्श पर भक्त – पुरुष एक ओर तथा स्त्रियाँ दूसरी ओर बैठती थीं | आरंभिक वर्षों में दरवाजे कभी बंद नहीं हुए |

रात्रि के समय में भी लोग आते थे | बाद के वर्षों में आयु एवं गिरते स्वास्थ्य के कारण आश्रम व्यवस्थापन ने निर्णय लिया कि कुछ घंटे उन्हें व्यक्तिगत आराम देना चाहिए|

आने वालों के लिए वह सदैव उपलब्ध रहे | यह ध्यान रखते हुए भगवान ने आश्रम कभी नहीं छोड़ा | प्रात: एवं सायंकाल वह पर्वत पालकोत्तु तथा कभी-कभी पर्वत की परिक्रमा के लिए जाते थे |

ध्यान कक्ष में लोग ध्यान के किए बैठते थे तथा महर्षि बिना बोले उनका निरीक्षण एवं मार्गदर्शन करते थे |   ऐसी पावंदिया नहीं थीं कि हर कोई एक निश्चित समय पर या निश्चित तरीके से ध्यान करे | कभी-कभी आवास की कठिनाई होती थी | सामान्य रूप से यह कभी भी आवासीय आश्रम नहीं था यध्यपि एक बड़े छत की व्यवस्था की गई जहाँ लोग जमीन पर अपना विस्तर लगा सकते थे | कुछ व्यक्तिगत कमरे अतिथियों के लिए थे | ये पर्याप्त नहीं थे और विशेषकर औरतों के किसी काम के नहीं थे जिन्हें रात्रि को आश्रम परीसर में रहने की अनुमति नहीं थी| अनेक भक्तों ने इसके चारो ओर अपने घर बनाये और इस प्रकार से मकानो का विकास हुआ | आश्रम के निकट साधुओं ने एक कालोनी बनायी तथा गुफाओं एवं झोपड़ियों  में रहने लगे| एक महाराजा ने एक अतिथि घर दान में दिया | इन सबके वावजूद आवास की समस्या बनी हुई है|

1950 में अचानक बहुत बडा परिवर्तन हुआ | लम्बी बीमारी के बाद महर्षि ने महासमाधि ली| भक्तों की भींड़ छंट गयी तथा कुछ क्षण के लिए लगा कि आश्रम नहीं रहेगा या एक निशान के रूप में रहेगा | यदयपि इस भय के विपरित किसी प्रकार की रिक्तता की अनुभूति नहीं हुई | महर्षि की उपस्थिति एवं अनुग्रह से वातावरण तेजस्वी बना रहा| उनकी उपस्थिति पहले की तुलना में अधिक शक्तिशाली रूप में अनुभव की गयी| इस अनुग्रह से निवासी कभी उदास नहीं हुए| किसी तरह का शोक नहीं था| लोगों ने महर्षि की सतत उपस्थिति रमणाश्रम् में अनुभव की | भक्त जो चले गये थे वापिस लौटे | यात्रियों की भीड चालू हो गयी | ऐसा कहा जाता है कि महर्षि ने अपनी निरन्तर उपस्थिति के कई संकेत दिए | बनायी गयी एक वसीयत में उन्होंने कहा है कि आश्रम एक आध्यात्मिक केन्द्र के रूप में कार्य करेगा | मृत्यु के कुछ समय पूर्व उन्होंने कहा ‘वे कहते हैं कि मैं जा रहा हूँ | किन्तु मैं कहा जा सकता हूँ? मैं यहाँ हूँ! महर्षि का यह कथन पूरी तरह से एक अभौतिक कथन था | ऋषि जिसने सार्वभौम आत्मा के साथ अपनी पहचान कर ली है, उनके लिए कहाँ आना, कहाँ जाना? कहाँ यहाँ कहाँ वहाँ? यहा वहाँ कुछ भी नहीं | केवल परिवर्तन रहित सत्ता अस्तित्वमान है तो भी उनके शव्दों का भौतिक प्रभाव है| वे उनके तिरुवण्णामलै के आश्रम पर लागू होते है| अपने जीवनकाल में महर्षि अक्सर कह्ते थे कि, “केवल शरीर यात्रा करता है, आत्मा अविचलित सत्ता है| सत्य का यह एक पक्ष है जो उन्हें सान्त्वना देता है जो भाग्यवश तिरुवण्णामलै नहीं आ सके | किन्तु दूसरा पक्ष भी कम सत्य नहीं है| पावन पर्वत अरुणाचल के तल पर स्थित रमणाश्रम् जाना एक अनुकम्पा है| जो यहाँ आते हैं वे परम शक्तिशाली आध्यात्मिक सहयोग प्राप्त करते हैं| यद्यपि श्री रमण सार्वभौम तथा अन्य सभी के हृदयों में सदैव हैं जो अपना जीवन उन्हें समर्पित करते है| जबकि उसी समय इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनकी शक्ति एवं मार्गदर्शन उनके तिरुवण्णामलै अश्रम में केन्द्रीभूत है|

श्री भगवान की सतत उपस्थिति की पुष्टि दूसरे रूप में भी होती है| उनकी मृत्यु के कुछ समय पूर्व जब कुछ भक्तों ने शिकायत की कि वे उन्हें छोड्कर जा रहे हैं तो भगवान ने उत्तर दिया, ‘ आप शरीर से अत्याधिक आसक्त हैं’ | इसका आशय स्पष्ट था ” शरीर उन्हें छोड्कर जा रहा था, वह नहीं | वह पहले की भाँति गुरु के रूप में सतत रहेंगे |

आश्रम का कोई आध्यात्मिक मुखिया नहीं है न ही मानव शरीर में कोई वसीयत के रूप में है | महर्षि की उपस्थित इतनी तीव्र एवं शक्तिशाली है कि वह सर्वशक्तिमान, अवैयक्तिक रमण शाश्वत गुरु तथा  यहाँ के मुख्य ईष्ट हैं| वह अपने पीछे जो आध्यात्मिक उपदेश छोड़ गये हैं, वे हर प्रकार से पूर्ण हैं तथा उनसे सीधे आध्यात्मिक सहयोग आता है| आवश्यकता केवल अभ्यास करने की है | सन 1953 में सर्वाधिकारी का निधन हुआ | उनके पुत्र टी.एन. वेंकटरामन ने अध्यक्ष के रूप में व्यवस्था संभाली | 1994 में वह सेवा-निवृत हुए तथा भगवान की वसीयत के अनुसार अपने सबसे बड़े पुत्र वी.एस.रमणन् को आश्रम के अध्यक्ष के रूप में सेवा करने का निर्देश दिया|